इक्किसवी शताब्दी में "गुरुकुल" जैसा शब्द हिन्दी शब्दकोष का एक शब्द बन कर रह गया है क्योंकि आजकल ना ही गुरुकुल जाकर शिक्षा ग्रहण करने की परंपरा जीवित है और ना ही आजकल के स्कुल और कोलेज तथाकथित "गुरुकुल" से मिलते जुलते हैं. आज के दौर के गुरुकुल और शिक्षाप्रणाली में आधुनिकिकरण के हर संभव आयाम झलकते हैं. और जैसे ही हम तथाकथित गुरुकुल से समाज के आधुनिक दिनचर्या में कदम रखते हैं तो गुरुकुल में सीखे हुए सभी पाठो की पुनःराव्रित्ति का अवसर आता है पर कथनी और करनी में कितना फर्क हो सकता है इसका उदाहरण हम सब रोजमर्रा की ज़िंदगी में स्वयम महसुस करते हैं. मैं इस लेख के जरिये आजकल के शिक्षाप्रणाली पर कोई प्रश्नचिन्ह नही उठाना चाहता हूँ क्योंकि यह अपने आप में एक सम्पुर्ण प्रणाली है पर मेरा लेख हम सबके कार्यप्रणाली और आज के दौर में बढ़ते हुए मानसिक तनाव और प्रताड्ना के झोको से गुजरते मनसपटॅल पर हो रहे प्रतिद्वंद को चित्रित करने का एक छोटा प्रयास है. गुरुकुल के दौर में विद्यार्जन करने के लिए हम सभी को गुरुकुल के अनुशाशन और तौरतरीको को सीखना पड़ता था. और इस शिक्षाप्रणाली का प्राथमिक उद्देश्य एक सजग विद्यार्थी का निरुपण और उसका समाज में समुचित समय में पदार्पण कराना होता था. ऐसे उद्देश्य की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक था कि विद्यार्थी को गुरुकुल में हर संभव तरीको से समुचित ज्ञान और उसके सदुपयोग करने की दिशा में अग्रसर किया जाए. इसी लिए गुरुकुल से जुड़े हुए प्राथमिक ग्रंथों में एक आदर्श विद्यार्थी को परिभाषित करने के लिए कहा गया है - "काक चेष्टा, बको ध्यानं, श्वान निद्रा तेथैव्चा अल्पहारी, गृहत्यागी विद्यार्थी पञ्च लक्षणं”. इस श्लोक में कहा गया है कि एक आदर्श विद्यार्थी के मुख्यतः पाँच लक्षण होने चाहिये: (1) काक चेष्टा: अर्थात कौवे के जैसा प्रयास. बचपन में हमने एक कौवे की कहानी सुनी थी जिसमे एक कौवा बहुत प्यासा होता है और भटकते भटकते वह एक पानी के मटके के पास पहुंचता है. उस मटके में पानी का स्तर बहुत नीचे होता है और कौवे की चोंच पानी को स्पर्श नही कर पाती. कौवे की प्यास उसे पानी तक पहुंचने के लिए हर संभव प्रयास करने को उकसित कराती है. परन्तु पानी का स्तर इतना नीचा होता है कि कौवा चाहकर भी पानी तक नही पहुंच पाता. फिर कौवा धीरे धीरे मटके के आस पास पड़े छोटे छोटे कंकडो को अपने चोंच से पकड़ कर उस मटके में डालना चालु करता है. उसके हर प्रयास पर पानी का स्तर बहुत धीरे धीरे ऊपर की ओर बढता जाता है और अंततः कौवे की अथक मेहनत रंग लाती है और पानी का स्तर इतना ऊपर हो जाता है कि वह अपने चोंच से अपनी प्यास बुझा लेता है. सुनने और सुनाने में कौवे की इस कहानी से बहुत कुछ सीखने को मिलता है. शायद गुरुकुल के सन्दर्भ में हर विद्यार्थी "काक चेष्टा" जैसे लक्षण को अपने आप में प्रारुपित करने का प्रयास भी करता है, पर क्या गुरुकुल के बाहर आज हम इस कहानी को भूल रहे हैं ? वास्तविक ज़िंदगी में ऐसे बहुत अवसर आते हैं जब हमे हमारा गंतव्य स्थल और वहा जाने का मार्ग साफ साफ दिखता है पर हम सभी शोर्ट-कट (सरल उपाय) की खोज करते हैं. सरल उपाय खोजने में कोई गलती नही है, पर क्या हम कठिन प्रयास करने से दुर नही जा रहे हैं ? गुरुकुल में सीखे हुए सभी उपदेश हमे निजी दिनचर्या और रोजमर्रा की ज़िंदगी में अपनाने चाहिये. किसी कार्य को करने के सौ उपाय हो सकते हैं, उसमें सबसे सरल उपाय को अपनाना सर्वोचित है पर अगर बात प्रयास करने की हो, तो निजी ज़िंदगी में हमे उस कौवे की तरह हमेशा तत्पर रहना चाहिये. क्योंकि कौवे की कहानी से इस बात का समावेश होता है कि कठिन परिश्रम और अनवरत प्रयासो से सफलता का प्राप्त होना तय है और इस सफलता को ब्रह्मांड का कोई नियम ग़लत साबित नही कर सकता. (2) बको ध्यानम: अर्थात सारस पक्षी जैसे पैनी नजर. अगर किसी नदी या तालाब के आस पास किसी सारस को देखने का अवसर मिलें तो एक अद्भुत नज़ारा दिखता है. सबसे पहले सारस एक ऐसे स्थान का चयन करता है जहाँ वो अपने आप को खड़ा कर सके और पानी में तैरते हुए मछलियो को पकड़ सके. एक बार सारस अपने पैर जमा ले तो एक पैर पर खड़े खड़े वह घंटो तैरते हुए मछलियो को निहारते रहता है. इस दौरान यह बहुत आवश्यक है कि उसकी उपस्थिति का अहसास और भनक मछलियो को ना लगे, इसलिए वह बहुत ही ध्यानमग्न हो कर एक ही आसन में लगातार एक पैर पर खड़े रहता है. जब मछलियो को सारस की गतिविधियाँ सुन्न दिखती हैं तो वे उसके आसपास से निडर हो कर भ्रमण करने लगती है. कभी कभी छोटे मछलियो का झुंड उस सारस के एकदम पास से गुजरता है परन्तु सारस अपने आसन से बिलकुल टस से मस नही होता. सारस का मुख्य उद्देश्य अपने पेट भरने के लिए एक बडी मछली को पकडना होता है इसलिए वह बहुत ही पैनी नजर से उस समय का इंतज़ार करता है जब तक एक बडी मछली उसके पास से नही गुजरती. जैसे ही उसके भूख के अनुरुप एक बडी मछली पास से गुजरती है तो वह एक झपत्ते में उस बडी मछली को पकड़ लेता है. सारस के इस कहानी से हमे यह सीखने को मिलता है कि अगर आपकी नजर पैनी हो और आपका ध्यान आपके सही गंतव्य पर हो तो आपको कोई दुसरी बाधा हत नही कर सकती. रोजमर्रा के दौड-धुप और आफिस के दिन-प्रतिदिन के तनाव भरे जीवन में आज हम इस कहानी को लगभग भूल रहे हैं. दुसरे शब्दों में कहा जाए तो हम सबको सारस की यह कहानी तो याद है, पर उससे लेने वाले सीख को हम भूल रहे हैं. अगर इस कहानी को मैं क्रिकेट के सन्दर्भ में परिभषित करु तो आप सचिन तेंदुलकर के किसी शतकीय पारी का अवलोकन करे. सचिन जैसे महान खिलाडी से एक बात सीखनी चाहिए, कि उनका ध्यान भी किसी सारस से कम नही था. उन्होंने कभी भी मैच में हो रहे अनावश्यक बातो पर ध्यान नही दिया और अपना ध्यान हमेशा गेंदबाज़ के गेंदो पर रखा, और जैसे ही कोई कमज़ोर गेंद का सामना हुआ तो उन्होंने अपने बल्ले से उस पर तेज़ प्रहार किया और ज़रुरी रन बटोरे. इसके लिए यह बहुत ज़रुरी है कि छोटे छोटे अनावश्यक विषय हमारे मार्ग में बाधा ना पहुँचा सके. और ऐसा करने के लिए, हमे छोटे छोटे समस्याओ से अपने मन को भ्रमित नही करना चाहिये. अगर हम अपना मन स्थिर होकर एक बडी समस्या के निरावरण पर केंद्रित करे तो हमे सफलता पाने से कोई नही रोक सकता और इसके लिए ज़रुरी है कि हम हमेशा "बको ध्यानम" वाले गुरुकुल के अध्याय को अपनी ज़िंदगी में ना केवल याद रखे बल्कि अपने मार्ग में इसका प्रतिरुपण भी करे और सफलता की तरफ़ अग्रसर हो. (3) श्वान निद्रा: अर्थात श्वान (कुत्ते) के जैसी नींद. वैसे तो श्वान को इस जगत् में सबसे ज्यादा वफादार माना जाता है और उसकी निद्रा का उल्लेख अलग अलग सन्दर्भ में किया जाता है. श्वान कितने भी गहरे नींद में क्यों ना हो, वह हमेशा अपने आस पास की गतिविधियो पर पैनी नजर रखता है. अगर श्वान कही पर सो रहा हो और हम एकदम दबे पैर उसके पास से गुजरने का प्रयास करें तो हमे एहसास हो जाता है कि हमारे आने जाने की हर भनक उस श्वान को हो जाती है. श्वान निद्रा से सीखने को मिलता है कि श्वान हमेशा अपने आस पास के वातावरण से सज़ग रहता है और परिस्थितियो के अनुरुप वह तुरंत तत्पर होता है. श्वान निद्रा के बिलकुल विपरीत हिन्दी में एक कहावत है - घोडे बेचकर सोना. कभी कभार हम इतने गहरी नींद में सो जाते हैं कि हमे बिलकुल भी अंदाजा नही होता कि आस पास में क्या हो रहा है. एक आदर्श विद्यार्थी से यह अपेक्षा रखी जाती है कि उसकी निद्रा बिलकुल श्वान निद्रा जैसे हो. आज के सन्दर्भ में श्वान निद्रा का मतलब यह नही है कि आप गहरे नींद में नही सोये, परन्तु इसका वास्तविक अर्थ यह है कि आप सोते समय भी सज़ग रहे. कोई दुश्मन आपकी कमज़ोरी का फायदा नही उठा सके. समाज में हमारी सज़गता से प्राथमिक तात्पर्य यह है कि हम हर प्रकार की परिस्थितियो के लिए अपने आप को मानसिक रुप से तैयार रखे. अगर आपके इर्द गिर्द कोई भी संदेहास्पद गतिविधियाँ हो रही हो तो अपने आप को इससे दुर ना रखे. समाज में होने वाली हर प्रकार की गतिविधियाँ हमारे लिए एक सबब भी है और जिम्मेदारी भी. आज कल हम ऐसे बहुत बातो को अनदेखा कर देते है क्योंकि उससे हमारा सीधासाधा कोई लेना देना नही होता, परन्तु एक आदर्श समाज के स्थापना के लिए यह ज़रूरी है कि गुरुकुल के बाद भी हम सब "श्वान निद्रा" के लक्षणो को अपने आप में जीवित रखे और उसका सर्वदा अनुकरण करे. (4) अल्पहारी: इसका अर्थ है ऐसा व्यक्ति जो अल्प (याने कि कम) आहार (भोजन) से संतुष्टि कर ले. गुरुकुल के दौर में विद्यार्थियो को अपना भोजन स्वयम बनाना पडता था और उनके भोजन पर गुरुजनो की दृष्टि भी होती थी. और गुरुकुल के प्रणाली में अल्पहार ही मुख्य आहार हुआ करता था. आहार के सन्दर्भ में सबसे उचित उद्देश्य यह होना चाहिये कि आप आहार का ग्रहण तभी करे जब आपको भूख लग रही हो. परन्तु आज कल आहार का ग्रहण घडी देख कर किया जाता है, फिर आप भुखे हो या ना हो, अगर आपके आफिस के कैंटीन का समय हो गया हो, तो आपके पैर स्वयम आहार की ओर चल पडते हैं. शायद "अल्पहारी" का लक्षण हम अपने आप में प्रतिरुपित करे तो हमे बार बार चिकित्सक के पास जाने की आवश्यकता नही पडेगी. आज के दौर में अनचाहे पेट, मोटापा और तरह तरह की बीमारीयो का प्राथमिक कारण हमारे खान-पान की आदते हैं. आधुनिक गुरुकुल और समाज़ के सन्दर्भ में इस "अल्पहारी" का तात्पर्य हमें अपने समस्त इंद्रियो पर लगाने की आवश्यकता है. हमेशा अपने भूख के अनुरुप, कम खाए. "अल्पहार" का अर्थ सिर्फ़ अपने पेट से नही लगाना चाहिये, बल्कि अपने पंच इंद्रियो पर नियंत्रण रखे और ज़रूरत से थोड़ा कम ग्रहण करे तो गुरुकुल के इस उपदेश का सच रुप से पालन हो पायेगा. (5) गृहत्यागी: प्राचीन काल के गुरुकुल के सन्दर्भ में "गृहत्यागी" का अर्थ होता था कि विद्यार्थी अपने घर का त्याग कर गुरुकुल में प्रवेश लेता था. और जब उसे अपना घर छोडना पडता था तो उसे घर के साथ साथ अपने माता-पिता से दुर जाना पडता था और इस लक्षण को ग्रहण करने के लिए विद्यार्थी को अपने घर के समस्त सुख-सुविधाओ का त्याग करना पडता था. ऐसा करने पर विद्यार्थी को ऐसी परिस्थितियो से गुजरना पडता था जहाँ उसे घर के जैसे अनुकुल वातावरण से परे रहना पड़े.
आज के सन्दर्भ में यह आवश्यक नही है कि विद्यार्थी को शिक्षाग्रहण करने के लिए अपना घर छोडना पड़े क्योंकि स्कुल में 24 घंटो का कार्यकाल नही होता, इसलिए "गृहत्यागी" का वास्तविक तात्पर्य इस बात से लगाना चाहिये कि क्या विद्यार्थी अपने कोम्फोर्ट ज़ोन (अनुकुल वातावरण) के दायरे के बाहर काम करने को तत्पर है ? गुरुकुल के बाद के दौर में, हर समाज़िक प्राणी हमेशा अपने अनुकुल वातावरण के आस पास ही रहना पसंद करता है. हर एक प्राणी चाहता है कि उसे अपने घर (या गृहस्थली) के आस पास ही नौकरी मिलें. चलिए नौकरी मिल जाए तो भी, वह ऐसा काम करना चाहता है जहाँ उसे सरलता लगे और सुख की प्राप्ति हो. इस सन्दर्भ में हम सभी "गृहत्यागी" के लक्षण के विपरीत "गृहनिवासी" के लक्षण को अपना रहे हैं. अगर सफलता के मार्ग में कांटे हो तो हम उस मार्ग में चलने के बजाय एक ऐसे मार्ग का अनुसरण करते हैं जहाँ राह में रोडे कम हो. "काक चेष्टा, बको ध्यानं, श्वान निद्रा तेथैव्चा अल्पहारी, गृहत्यागी विद्यार्थी पञ्च लक्षणं”. इस श्लोक के अनुसार एक आदर्श विद्यार्थी के पाँच लक्षणो का विस्तृत में व्यख्यान किया गया है, परन्तु क्या यह सच नही है कि गुरुकुल में सीखे हुए सारे गुरो का हम अपने निज़ी ज़िंदगी में पालन करे ? फिर ऐसा क्यों होता है कि शिक्षार्जन का अध्याय होते ही हम इन पाँच लक्षणो का पालन नही कर पाते ? शायद इसलिए कि शिक्षाप्रणाली के अनुरुप एक विद्यार्थी की परिभाषा केवल स्कुल तक ही सीमित रहती है. लेकिन वास्तविकता यह है कि ज़िंदगी में आने वाला हर एक पल, हर एक दिन, हर एक नया अध्याय हमे कुछ ना कुछ सिखने के लिए अवसर प्रदान करता है. भले ही शिक्षाप्रणाली या गुरुकुल के नियमो के अधीन हम विद्यार्थी रहे या ना रहे, पर जब तक हमारा जज्बा सीखने के लिए तत्पर रहे, हम अपने उम्र से लड सकते हैं. कोई इंसान इसलिए बुजुर्ग नही हो जाता कि उसकी आयु बढ रही है, पर वह इंसान लिए बुजुर्ग हो जाता है क्योंकि उसके सीखने की तत्परता कम होने लगती है. पत्थर को तराश कर जो इंसान मूर्ति बनाता है, उसे देख कर मुझे अहसास होता है कि उसने भले ही शिक्षार्जन किया हो या ना किया हो, पर उसमे आज भी "काकचेष्टा" के समस्त गुण मौजूद हैं क्योंकि मूर्ति बनाने के लिए कोई भी शोर्ट-कट नही होता. उसी प्रकार, इमारत को बनाने वाला मज़दुर जब आपस में इंट जोड़ कर दिवार का निर्माण करते हैं, तो उसका ध्यान मुझे "बकोध्यानम" के लक्षण को याद दिलाता है, क्योंकि खुले आसमान में मौसम के गर्म/ठंडे थपेडो और विपरीत वातावरण के बावज़ुद उसका ध्यान उसके काम पर ही होता है. देश के सीमाओ की रक्षा करते सैन्यबल के जवान चाहे दिन हो या रात, अपनी चुस्त और सज़ग नजर से मुझे "श्वान निद्रा" जैसे जटिल लक्षण की याद दिलाते हैं. "अल्पहारी" जैसे लक्षण के लिए अनुशासन का होना बहुत ज़रूरी है और इसके लिए कोई विशेष विद्या अर्जन कि आवश्यकता नही होती क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि आपकी भौतिक उंचाइ (हाइट) भगवान की देन है परन्तु आपका पेट आपकी स्वयम निर्मित देन है जिसे आप कम भी कर सकते हैं और ज्यादा भी कर सकते हैं. "गृहत्यागी" जैसे लक्षण के लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि हम अपने मानसिक विचारधारा को विपरीत परिस्थितियो में भी अपने नियंत्रण में रखे क्योंकि अनुकुल परिस्थितियो में तो कोई भी सफल हो सकता है पर जीवन की असली परीक्षा तो विपरीत वातावरण में ही होती है. [ DISCLAIMER ] All content provided on this web-page blog is for informational purposes only. The owner of this blog makes no representations as to the accuracy or completeness of any information on this site or found by following any link on this site. The owner of this website will not be liable for any errors or omissions in this information nor for the availability of this information. The owner will not be liable for any losses, injuries, or damages from the display or use of this information. This terms and conditions is subject to change at anytime with or without notice.
5 Comments
बृज मोहन अग्रवाल
25/8/2019 08:06:35
आज यह सूत्र न केवल विद्यार्थी के लिए वल्कि मनुष्य मात्र के लिए उपयोगी है ! इसका थोडा परिवर्तित रूप यह होना चाहिए !
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Manish Kumar jaiswal
12/9/2020 02:00:33
Ye niyamawali pure jivan bana ke rakhe to ham kanhi nhi dukhi hongey
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सत्यम
22/10/2019 03:25:15
वाह! बहुत सुंदर व्याख्या किया है आपने।
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Chandrashekhar pandit
1/12/2019 21:22:51
Excellent explanation Sir. Thank you very much for clearing my doubts about this proverb.
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