इक्किसवी शताब्दी में "गुरुकुल" जैसा शब्द हिन्दी शब्दकोष का एक शब्द बन कर रह गया है क्योंकि आजकल ना ही गुरुकुल जाकर शिक्षा ग्रहण करने की परंपरा जीवित है और ना ही आजकल के स्कुल और कोलेज तथाकथित "गुरुकुल" से मिलते जुलते हैं. आज के दौर के गुरुकुल और शिक्षाप्रणाली में आधुनिकिकरण के हर संभव आयाम झलकते हैं. और जैसे ही हम तथाकथित गुरुकुल से समाज के आधुनिक दिनचर्या में कदम रखते हैं तो गुरुकुल में सीखे हुए सभी पाठो की पुनःराव्रित्ति का अवसर आता है पर कथनी और करनी में कितना फर्क हो सकता है इसका उदाहरण हम सब रोजमर्रा की ज़िंदगी में स्वयम महसुस करते हैं. मैं इस लेख के जरिये आजकल के शिक्षाप्रणाली पर कोई प्रश्नचिन्ह नही उठाना चाहता हूँ क्योंकि यह अपने आप में एक सम्पुर्ण प्रणाली है पर मेरा लेख हम सबके कार्यप्रणाली और आज के दौर में बढ़ते हुए मानसिक तनाव और प्रताड्ना के झोको से गुजरते मनसपटॅल पर हो रहे प्रतिद्वंद को चित्रित करने का एक छोटा प्रयास है. गुरुकुल के दौर में विद्यार्जन करने के लिए हम सभी को गुरुकुल के अनुशाशन और तौरतरीको को सीखना पड़ता था. और इस शिक्षाप्रणाली का प्राथमिक उद्देश्य एक सजग विद्यार्थी का निरुपण और उसका समाज में समुचित समय में पदार्पण कराना होता था. ऐसे उद्देश्य की प्राप्ति के लिए यह आवश्यक था कि विद्यार्थी को गुरुकुल में हर संभव तरीको से समुचित ज्ञान और उसके सदुपयोग करने की दिशा में अग्रसर किया जाए. इसी लिए गुरुकुल से जुड़े हुए प्राथमिक ग्रंथों में एक आदर्श विद्यार्थी को परिभाषित करने के लिए कहा गया है - "काक चेष्टा, बको ध्यानं, श्वान निद्रा तेथैव्चा अल्पहारी, गृहत्यागी विद्यार्थी पञ्च लक्षणं”. इस श्लोक में कहा गया है कि एक आदर्श विद्यार्थी के मुख्यतः पाँच लक्षण होने चाहिये: (1) काक चेष्टा: अर्थात कौवे के जैसा प्रयास. बचपन में हमने एक कौवे की कहानी सुनी थी जिसमे एक कौवा बहुत प्यासा होता है और भटकते भटकते वह एक पानी के मटके के पास पहुंचता है. उस मटके में पानी का स्तर बहुत नीचे होता है और कौवे की चोंच पानी को स्पर्श नही कर पाती. कौवे की प्यास उसे पानी तक पहुंचने के लिए हर संभव प्रयास करने को उकसित कराती है. परन्तु पानी का स्तर इतना नीचा होता है कि कौवा चाहकर भी पानी तक नही पहुंच पाता. फिर कौवा धीरे धीरे मटके के आस पास पड़े छोटे छोटे कंकडो को अपने चोंच से पकड़ कर उस मटके में डालना चालु करता है. उसके हर प्रयास पर पानी का स्तर बहुत धीरे धीरे ऊपर की ओर बढता जाता है और अंततः कौवे की अथक मेहनत रंग लाती है और पानी का स्तर इतना ऊपर हो जाता है कि वह अपने चोंच से अपनी प्यास बुझा लेता है. सुनने और सुनाने में कौवे की इस कहानी से बहुत कुछ सीखने को मिलता है. शायद गुरुकुल के सन्दर्भ में हर विद्यार्थी "काक चेष्टा" जैसे लक्षण को अपने आप में प्रारुपित करने का प्रयास भी करता है, पर क्या गुरुकुल के बाहर आज हम इस कहानी को भूल रहे हैं ? वास्तविक ज़िंदगी में ऐसे बहुत अवसर आते हैं जब हमे हमारा गंतव्य स्थल और वहा जाने का मार्ग साफ साफ दिखता है पर हम सभी शोर्ट-कट (सरल उपाय) की खोज करते हैं. सरल उपाय खोजने में कोई गलती नही है, पर क्या हम कठिन प्रयास करने से दुर नही जा रहे हैं ? गुरुकुल में सीखे हुए सभी उपदेश हमे निजी दिनचर्या और रोजमर्रा की ज़िंदगी में अपनाने चाहिये. किसी कार्य को करने के सौ उपाय हो सकते हैं, उसमें सबसे सरल उपाय को अपनाना सर्वोचित है पर अगर बात प्रयास करने की हो, तो निजी ज़िंदगी में हमे उस कौवे की तरह हमेशा तत्पर रहना चाहिये. क्योंकि कौवे की कहानी से इस बात का समावेश होता है कि कठिन परिश्रम और अनवरत प्रयासो से सफलता का प्राप्त होना तय है और इस सफलता को ब्रह्मांड का कोई नियम ग़लत साबित नही कर सकता. (2) बको ध्यानम: अर्थात सारस पक्षी जैसे पैनी नजर. अगर किसी नदी या तालाब के आस पास किसी सारस को देखने का अवसर मिलें तो एक अद्भुत नज़ारा दिखता है. सबसे पहले सारस एक ऐसे स्थान का चयन करता है जहाँ वो अपने आप को खड़ा कर सके और पानी में तैरते हुए मछलियो को पकड़ सके. एक बार सारस अपने पैर जमा ले तो एक पैर पर खड़े खड़े वह घंटो तैरते हुए मछलियो को निहारते रहता है. इस दौरान यह बहुत आवश्यक है कि उसकी उपस्थिति का अहसास और भनक मछलियो को ना लगे, इसलिए वह बहुत ही ध्यानमग्न हो कर एक ही आसन में लगातार एक पैर पर खड़े रहता है. जब मछलियो को सारस की गतिविधियाँ सुन्न दिखती हैं तो वे उसके आसपास से निडर हो कर भ्रमण करने लगती है. कभी कभी छोटे मछलियो का झुंड उस सारस के एकदम पास से गुजरता है परन्तु सारस अपने आसन से बिलकुल टस से मस नही होता. सारस का मुख्य उद्देश्य अपने पेट भरने के लिए एक बडी मछली को पकडना होता है इसलिए वह बहुत ही पैनी नजर से उस समय का इंतज़ार करता है जब तक एक बडी मछली उसके पास से नही गुजरती. जैसे ही उसके भूख के अनुरुप एक बडी मछली पास से गुजरती है तो वह एक झपत्ते में उस बडी मछली को पकड़ लेता है. सारस के इस कहानी से हमे यह सीखने को मिलता है कि अगर आपकी नजर पैनी हो और आपका ध्यान आपके सही गंतव्य पर हो तो आपको कोई दुसरी बाधा हत नही कर सकती. रोजमर्रा के दौड-धुप और आफिस के दिन-प्रतिदिन के तनाव भरे जीवन में आज हम इस कहानी को लगभग भूल रहे हैं. दुसरे शब्दों में कहा जाए तो हम सबको सारस की यह कहानी तो याद है, पर उससे लेने वाले सीख को हम भूल रहे हैं. अगर इस कहानी को मैं क्रिकेट के सन्दर्भ में परिभषित करु तो आप सचिन तेंदुलकर के किसी शतकीय पारी का अवलोकन करे. सचिन जैसे महान खिलाडी से एक बात सीखनी चाहिए, कि उनका ध्यान भी किसी सारस से कम नही था. उन्होंने कभी भी मैच में हो रहे अनावश्यक बातो पर ध्यान नही दिया और अपना ध्यान हमेशा गेंदबाज़ के गेंदो पर रखा, और जैसे ही कोई कमज़ोर गेंद का सामना हुआ तो उन्होंने अपने बल्ले से उस पर तेज़ प्रहार किया और ज़रुरी रन बटोरे. इसके लिए यह बहुत ज़रुरी है कि छोटे छोटे अनावश्यक विषय हमारे मार्ग में बाधा ना पहुँचा सके. और ऐसा करने के लिए, हमे छोटे छोटे समस्याओ से अपने मन को भ्रमित नही करना चाहिये. अगर हम अपना मन स्थिर होकर एक बडी समस्या के निरावरण पर केंद्रित करे तो हमे सफलता पाने से कोई नही रोक सकता और इसके लिए ज़रुरी है कि हम हमेशा "बको ध्यानम" वाले गुरुकुल के अध्याय को अपनी ज़िंदगी में ना केवल याद रखे बल्कि अपने मार्ग में इसका प्रतिरुपण भी करे और सफलता की तरफ़ अग्रसर हो. (3) श्वान निद्रा: अर्थात श्वान (कुत्ते) के जैसी नींद. वैसे तो श्वान को इस जगत् में सबसे ज्यादा वफादार माना जाता है और उसकी निद्रा का उल्लेख अलग अलग सन्दर्भ में किया जाता है. श्वान कितने भी गहरे नींद में क्यों ना हो, वह हमेशा अपने आस पास की गतिविधियो पर पैनी नजर रखता है. अगर श्वान कही पर सो रहा हो और हम एकदम दबे पैर उसके पास से गुजरने का प्रयास करें तो हमे एहसास हो जाता है कि हमारे आने जाने की हर भनक उस श्वान को हो जाती है. श्वान निद्रा से सीखने को मिलता है कि श्वान हमेशा अपने आस पास के वातावरण से सज़ग रहता है और परिस्थितियो के अनुरुप वह तुरंत तत्पर होता है. श्वान निद्रा के बिलकुल विपरीत हिन्दी में एक कहावत है - घोडे बेचकर सोना. कभी कभार हम इतने गहरी नींद में सो जाते हैं कि हमे बिलकुल भी अंदाजा नही होता कि आस पास में क्या हो रहा है. एक आदर्श विद्यार्थी से यह अपेक्षा रखी जाती है कि उसकी निद्रा बिलकुल श्वान निद्रा जैसे हो. आज के सन्दर्भ में श्वान निद्रा का मतलब यह नही है कि आप गहरे नींद में नही सोये, परन्तु इसका वास्तविक अर्थ यह है कि आप सोते समय भी सज़ग रहे. कोई दुश्मन आपकी कमज़ोरी का फायदा नही उठा सके. समाज में हमारी सज़गता से प्राथमिक तात्पर्य यह है कि हम हर प्रकार की परिस्थितियो के लिए अपने आप को मानसिक रुप से तैयार रखे. अगर आपके इर्द गिर्द कोई भी संदेहास्पद गतिविधियाँ हो रही हो तो अपने आप को इससे दुर ना रखे. समाज में होने वाली हर प्रकार की गतिविधियाँ हमारे लिए एक सबब भी है और जिम्मेदारी भी. आज कल हम ऐसे बहुत बातो को अनदेखा कर देते है क्योंकि उससे हमारा सीधासाधा कोई लेना देना नही होता, परन्तु एक आदर्श समाज के स्थापना के लिए यह ज़रूरी है कि गुरुकुल के बाद भी हम सब "श्वान निद्रा" के लक्षणो को अपने आप में जीवित रखे और उसका सर्वदा अनुकरण करे. (4) अल्पहारी: इसका अर्थ है ऐसा व्यक्ति जो अल्प (याने कि कम) आहार (भोजन) से संतुष्टि कर ले. गुरुकुल के दौर में विद्यार्थियो को अपना भोजन स्वयम बनाना पडता था और उनके भोजन पर गुरुजनो की दृष्टि भी होती थी. और गुरुकुल के प्रणाली में अल्पहार ही मुख्य आहार हुआ करता था. आहार के सन्दर्भ में सबसे उचित उद्देश्य यह होना चाहिये कि आप आहार का ग्रहण तभी करे जब आपको भूख लग रही हो. परन्तु आज कल आहार का ग्रहण घडी देख कर किया जाता है, फिर आप भुखे हो या ना हो, अगर आपके आफिस के कैंटीन का समय हो गया हो, तो आपके पैर स्वयम आहार की ओर चल पडते हैं. शायद "अल्पहारी" का लक्षण हम अपने आप में प्रतिरुपित करे तो हमे बार बार चिकित्सक के पास जाने की आवश्यकता नही पडेगी. आज के दौर में अनचाहे पेट, मोटापा और तरह तरह की बीमारीयो का प्राथमिक कारण हमारे खान-पान की आदते हैं. आधुनिक गुरुकुल और समाज़ के सन्दर्भ में इस "अल्पहारी" का तात्पर्य हमें अपने समस्त इंद्रियो पर लगाने की आवश्यकता है. हमेशा अपने भूख के अनुरुप, कम खाए. "अल्पहार" का अर्थ सिर्फ़ अपने पेट से नही लगाना चाहिये, बल्कि अपने पंच इंद्रियो पर नियंत्रण रखे और ज़रूरत से थोड़ा कम ग्रहण करे तो गुरुकुल के इस उपदेश का सच रुप से पालन हो पायेगा. (5) गृहत्यागी: प्राचीन काल के गुरुकुल के सन्दर्भ में "गृहत्यागी" का अर्थ होता था कि विद्यार्थी अपने घर का त्याग कर गुरुकुल में प्रवेश लेता था. और जब उसे अपना घर छोडना पडता था तो उसे घर के साथ साथ अपने माता-पिता से दुर जाना पडता था और इस लक्षण को ग्रहण करने के लिए विद्यार्थी को अपने घर के समस्त सुख-सुविधाओ का त्याग करना पडता था. ऐसा करने पर विद्यार्थी को ऐसी परिस्थितियो से गुजरना पडता था जहाँ उसे घर के जैसे अनुकुल वातावरण से परे रहना पड़े.
आज के सन्दर्भ में यह आवश्यक नही है कि विद्यार्थी को शिक्षाग्रहण करने के लिए अपना घर छोडना पड़े क्योंकि स्कुल में 24 घंटो का कार्यकाल नही होता, इसलिए "गृहत्यागी" का वास्तविक तात्पर्य इस बात से लगाना चाहिये कि क्या विद्यार्थी अपने कोम्फोर्ट ज़ोन (अनुकुल वातावरण) के दायरे के बाहर काम करने को तत्पर है ? गुरुकुल के बाद के दौर में, हर समाज़िक प्राणी हमेशा अपने अनुकुल वातावरण के आस पास ही रहना पसंद करता है. हर एक प्राणी चाहता है कि उसे अपने घर (या गृहस्थली) के आस पास ही नौकरी मिलें. चलिए नौकरी मिल जाए तो भी, वह ऐसा काम करना चाहता है जहाँ उसे सरलता लगे और सुख की प्राप्ति हो. इस सन्दर्भ में हम सभी "गृहत्यागी" के लक्षण के विपरीत "गृहनिवासी" के लक्षण को अपना रहे हैं. अगर सफलता के मार्ग में कांटे हो तो हम उस मार्ग में चलने के बजाय एक ऐसे मार्ग का अनुसरण करते हैं जहाँ राह में रोडे कम हो. "काक चेष्टा, बको ध्यानं, श्वान निद्रा तेथैव्चा अल्पहारी, गृहत्यागी विद्यार्थी पञ्च लक्षणं”. इस श्लोक के अनुसार एक आदर्श विद्यार्थी के पाँच लक्षणो का विस्तृत में व्यख्यान किया गया है, परन्तु क्या यह सच नही है कि गुरुकुल में सीखे हुए सारे गुरो का हम अपने निज़ी ज़िंदगी में पालन करे ? फिर ऐसा क्यों होता है कि शिक्षार्जन का अध्याय होते ही हम इन पाँच लक्षणो का पालन नही कर पाते ? शायद इसलिए कि शिक्षाप्रणाली के अनुरुप एक विद्यार्थी की परिभाषा केवल स्कुल तक ही सीमित रहती है. लेकिन वास्तविकता यह है कि ज़िंदगी में आने वाला हर एक पल, हर एक दिन, हर एक नया अध्याय हमे कुछ ना कुछ सिखने के लिए अवसर प्रदान करता है. भले ही शिक्षाप्रणाली या गुरुकुल के नियमो के अधीन हम विद्यार्थी रहे या ना रहे, पर जब तक हमारा जज्बा सीखने के लिए तत्पर रहे, हम अपने उम्र से लड सकते हैं. कोई इंसान इसलिए बुजुर्ग नही हो जाता कि उसकी आयु बढ रही है, पर वह इंसान लिए बुजुर्ग हो जाता है क्योंकि उसके सीखने की तत्परता कम होने लगती है. पत्थर को तराश कर जो इंसान मूर्ति बनाता है, उसे देख कर मुझे अहसास होता है कि उसने भले ही शिक्षार्जन किया हो या ना किया हो, पर उसमे आज भी "काकचेष्टा" के समस्त गुण मौजूद हैं क्योंकि मूर्ति बनाने के लिए कोई भी शोर्ट-कट नही होता. उसी प्रकार, इमारत को बनाने वाला मज़दुर जब आपस में इंट जोड़ कर दिवार का निर्माण करते हैं, तो उसका ध्यान मुझे "बकोध्यानम" के लक्षण को याद दिलाता है, क्योंकि खुले आसमान में मौसम के गर्म/ठंडे थपेडो और विपरीत वातावरण के बावज़ुद उसका ध्यान उसके काम पर ही होता है. देश के सीमाओ की रक्षा करते सैन्यबल के जवान चाहे दिन हो या रात, अपनी चुस्त और सज़ग नजर से मुझे "श्वान निद्रा" जैसे जटिल लक्षण की याद दिलाते हैं. "अल्पहारी" जैसे लक्षण के लिए अनुशासन का होना बहुत ज़रूरी है और इसके लिए कोई विशेष विद्या अर्जन कि आवश्यकता नही होती क्योंकि ऐसा कहा जाता है कि आपकी भौतिक उंचाइ (हाइट) भगवान की देन है परन्तु आपका पेट आपकी स्वयम निर्मित देन है जिसे आप कम भी कर सकते हैं और ज्यादा भी कर सकते हैं. "गृहत्यागी" जैसे लक्षण के लिए सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि हम अपने मानसिक विचारधारा को विपरीत परिस्थितियो में भी अपने नियंत्रण में रखे क्योंकि अनुकुल परिस्थितियो में तो कोई भी सफल हो सकता है पर जीवन की असली परीक्षा तो विपरीत वातावरण में ही होती है.
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आशा की किरण : एक समाज सेवा
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और हमेशा से ही हम सभी इस समाज के एक अभिन्न अंग रहे हैं. समाज के बनाने और बिगाडने में हम सभी का अनवरत योगदान रहता है, परन्तु जाने अनजाने में समाज सेवा पर ना ही हम कभी गहन रुप से विचार विमर्श करते हैं और ना ही इस विषय पर विशेष ध्यान दिया जाता है. इस छोटे से लेख के द्वारा मैं समस्त पाठको का ध्यान समाज सेवा जैसे गंभीर विषय पर आकर्षित करना चाहता हूँ तथा अपने कुछ विचारो को आपके समक्ष रखना चाहता हूँ. सर्वप्रथम - आख़िर समाज क्या है ? हमारे परिवार के सदस्य ? हमारे मित्रगण ? हमारे पास-पडोस के व्यक्तिगण ? या हमारे मुहल्ले में रहने वाले समस्त नर-नारी ? वैसे तो समाज की परिभाषा बहुत ही सरल भी है और बहुत ही जटिल भी. परन्तु मेरे अनुसार सीधे-साधे बोलचाल की भाषा में - समस्त सजीव या निर्जीव वस्तुओं का समूह जो दिन-प्रतिदिन हमारे समक्ष प्रस्तुत होता है, किसी ना किसी रुप में इस समाज का एक अमिट हिस्सा है. और हम सभी इस समाज की सेवा के लिए अवश्य कुछ ना कुछ कर सकते हैं, बस जरुरत है एक बदलाव की. एक ऐसा बदलाव जिसके तहत हम सभी इस बात का सर्व सम्मति से स्मरण करें और करते रहें कि हमारे योगदान से एक ऐसे समाज का फायदा होगा जिसके हम स्वयम एक सदस्य हैं. और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि अगर इस समाज का कोई भला कर सकता है तो सिर्फ़ हम कर कर सकते हैं. हमें कभी भी ऐसी उम्मीद नही रखनी चाहिए कि भगवान का कोई बंदा ऊपर से आएगा और इस समाज का उद्धरण करेगा. जो कुछ करना है हमें स्वयम अपने आप करना होगा. सुबह सुबह जब हम पास के बागान में भ्रमण करने निकलते हैं तो अकसर ऐसे अनगिनत व्यक्तियो से अनायास ही मुलाकात हो जाती है जिनका ना ही हमें नाम पता मालूम होता है और ना ही उनका गंतव्य स्थल, पर जाने अनजाने में एक दूसरे की ओर देखकर हल्की मुस्कान का आदान प्रदान हो ही जाता है. इस समाज में ऐसी मुस्कान से एक नए रिश्ते का निर्माण होता है. ऐसे मुस्कान से समाज में धीरे धीरे सकरात्मक ऊर्जा का विस्तार होना शुरू होता है. इसलिए अगर कभी भी आपको समाज में किसी अजनबी से रुबरु होना पड़े तो कोशिश किजियेगा की एक छोटे से मुस्कान से आप समाज को एक आशात्मक ऊर्जा का संदेश दे सकते हैं. एक मुस्कान अपने आप में सकारात्मक सोच का आगाज़ होता है. कामकाजी इंसानो के लिए सुबह सुबह घड़ी की रफ्तार जरुरत से भी ज्यादा तेज लगती है, जल्दी जल्दी जलपान कर समय पर कार्यालय पहुंचने का तनाव, तो आफिस में बॉस की दुत्कार का भय. पता नही क्यों, सुबह घड़ी की रफ्तार ज्यादा ही त्वरित लगती है. ऐसे तनाव के माहौल में जब हम सड़क पर अचानक से लालबत्ती का सामना करते हैं तो महज 90 सेकंड का समय मानो 90 घंटो जैसा प्रतीत होता है, और लाचार मन बगैर कुछ सोचे समझे नियम कानून को तोडने की कोशिश करता है. पर क्या ऐसे अवसर पर हमारा दायित्व नही बनता की हम एक जिम्मेदार नागरिक का फर्ज अदा करें और लालबत्ती को हरीबत्ती में तबदील होने तक इंतेजार करें ? ऐसे मौको पर हम सभी का फर्ज बनता है कि समाज को एक अनुशाशन की मिसाल दे. फर्ज कीजिये कि आपका कोई बहुत करीबी रिश्तेदार सड़क के दूसरी ओर से अपनी गाडी में आ रहा है और आप लालबत्ती को तोडते हुए अपने ही रिश्तेदार से टकरा जाते हैं, तो क्या आपको अफसोस नही होगा कि आपकी एक छोटी सी गलती की वजह से आपके नज़दीकी रिश्तेदार को चोट पहुंचती है ? क्या पता, ऐसे घटना में आपका भी बहुत बडा नुकसान हो जाए ? और ऐसे घटने वाले किसी भी दुर्घटना को हम अपने दायित्व से ना केवल टाल सकते हैं बल्कि हमारे अनुशाशन द्वारा रोकने का भरसक प्रयास भी कर सकते हैं. वास्तव में समाज निर्माण की दिशा में आपका कदम बहुत ज्यादा सराहनीय हो सकता है क्योंकि आपको देख कर सम्भवतः कुछ और नागरिक भी अपने दायित्व को निभाने का प्रयास करें. बस जरुरत है तो एक शुरुवात कि जो आप ख़ुद कर सकते हैं. चलिए ये तो हुई सड़क पर अनुशाशन हीनता के फलस्वरुप होने वाले दुर्घटनाओ को रोकने की बात, अब हम देखे कि इस समाज को हम और क्या दे सकते हैं. जरुरतमंद इंसानो को अगर अनचाहे ही कोई मदद कर दे तो ये अपने आप में बहुत बडी समाजसेवा है. फर्ज कीजिये कि आप अचानक से किसी सडक दुर्घटना का शिकार हो जाते हैं ! हो सकता है आपके पास बहुत पैसा हो और आपका बैंक बेलेंस भी बहुत सराहनीय हो परन्तु ऐन वक्त पर इस समाज का एक सदस्य ही आपकी मदद कर सकता है. एक ऐसा बंदा जो अपने बहुमुल्य समय से कुछ क्षण आपके लिए खर्च करे. जो आपको समय पर नज़दीक के अस्पताल में दाखिल करे और आपके परिवारजनो को इत्तला करे कि आप एक दुर्घटना का शिकार हो गए हैं. अगर आप स्वयम ऐसी मदद ना कर सके तो कम से कम उन लोगो को प्रोत्साहित करें जो मदद करने को तत्पर हो. आपका प्रोत्साहन भी अपने आप में समाज सेवा की दिशा में एक सकारत्मक कदम साबित होगा. इस समाज में हमारा सबसे बडा दायित्व होता है - दान करना. एक नेक दिल इंसान कभी भी दान करने से नही कतराता है. पर इसका मतलब यह नही है कि आप अपने मेहनत से कमाये हुए धन-पूंजी को मुफ्त में लुटाते रहें. आप सबसे पहले इस बात का मुल्यांकन करें कि भगवान ने आपको ऐसा क्या दिया है जो आपके बस दान करने योग्य है ? किसी होटल में लंच या डिनर के उपरांत टिप में दिए हुए दस - बीस रुपये आपके लिए शायद ज्यादा मायने नही रखते होंगे पर यह रकम वहां काम करने वाले बैरे के लिए या सड़क पर बैठे किसी भिखारी के लिए बहुत बडी रकम होगी. अकसर बडी पार्टियों में हम अपने थालि में उतना खाना छोड़ देते हैं जितना खाना अनगिनत गरीबो को खाने को भी नसीब नही होती. क्या ये इस समाज का असंतुलन नही है ? "एक अकेला क्या कर सकता है”, ऐसी सोच बदलने की आवश्यकता है. कभी भी आप बडी पार्टियों में भोजन को व्यर्थ ना जाने दे, हो सकता है आपके द्वारा छोडा गया भोजन किसी जरुरतमंद इंसान का पेट भर दे. यह भी तो एक प्रकार की समाज सेवा ही है. मुझे एक और बात बहुत ज्यादा महत्वपूर्ण लगती है और वह है - एक सकारात्मक ऊर्जा का प्रचार-प्रसार. जब कभी भी आपको समाज में चर्चा करने का अवसर प्रदान हो या इस समाज के सदस्यों से बातचीत करने का सौभाग्य प्राप्त हो तो अपने शब्दों को काफ़ी तोल कर सामने रखे. इस बार पर गहन रुप से विचार करें कि क्या आपके वार्तालाप से इस समाज पर कोई धनात्मक प्रभाव आ सकता है ? अकसर समूह में आपने देखा होगा कि दूसरो की निंदा करने में बहुत लोगो को एक अजीब सी खुशी मिलती है. हो सकता है कि इस समाज की कुछ कार्यकलाप या विधि आपको पसंद नही आती हो, परन्तु महज निंदा करने से कभी भी इस समाज का भला नही हो सकता. अगर आप कभी भी किसी बात की निंदा करते हैं तो प्रयास किजियेगा कि आप इस बात पर भी ध्यान दे कि ऐसा क्या किया जा सकता है जिससे ऐसे निंदनीय कार्यकलापो में सुधार लाया जा सके ? और क्या आप स्वयम ऐसे सुधार कार्यो में अपना योगदान कर सकते हैं ? किसी दूसरे को सलाह देना बहुत आसान होता है, पर वास्तव में उसका अनुचरण करना बहुत कठिन कार्य है. इसलिए समाज सुधार में सबसे पहले और सबसे आगे हमें स्वयम आना होगा, तभी इस समाज में एक सकारत्मक उर्जा का प्रचार-प्रसार किया जा सकता है. जैसे सुर्योदय के उपरांत सुरज की किरणे धीरे धीरे अंधकार का नाश कर देती हैं और अपने प्रकाश से आशा की एक नयी उमंग भर देती हैं ठीक उसी प्रकार हम अपने सार्थक प्रयासों से इस समाज में आशा की एक किरण का प्रचार कर सकते हैं. इसके लिए सबसे जरूरी है कि सर्वप्रथम इस समाज में व्याप्त नकारात्मक सोच का नाश किया जाये. अगर हम सब अपने सकारात्मक सोच से अपने प्रयासो को त्वरित करें तो एक ना एक दिन इस समाज में आशावाद का खून दौडेगा. मेरे द्वारा प्रस्तुत लेख का मुख्य उद्देश्य एक बहुत अल्प, लेकिन सार्थक प्रयास है, जो आपको मजबूर करे के क्या इस समाज के पुनःनिर्माण में क्या हम अपना दायित्व निभायेंगे या महज एक मूक दर्शक की तरह आलोचानाओ के दौर को बढावा देंगे ? यह अपने आप में एक प्रश्नचिह्न भी है और उत्तर भी. साढे चार सौ का रिश्ता
कभी कभी जीवन में हम ऐसे दोराहे पर आ जाते हैं जहाँ हमें तत्काल फैसला करना होता है कि हम कौन सा मार्ग चुनें ? अगर ऐसी परिस्थिति किसी मित्र या रिश्तेदार की जिंदगी में हो तो सुझाव देना बहुत ही आसान होता है. और आसान तो होना ही है क्योंकि उसके परिणाम से हमें ख़ुद कोई लेना देना नही होता. शायद इसीलिये कहा जाता है कि - "सलाह ही एकमात्र वस्तु है जिसकी भरपाई हमेशा ही मांग से ज्यादा होती है (Advice is only the drug in the market, whose supply always exceeds the demand). परन्तु समस्त जीवन में ऐसी परिस्थितियों का बारीकि से अवलोकन किया जाए तो उनसे निकलने वाले निष्कर्ष इतने ज्यादा अमूल्य होते हैं कि उनकी तुलना किसी भी सबक से नही की जा सकती. प्रस्तुत लेख के द्वारा मेरा प्रमुख उद्देश्य समस्त पाठको का ध्यान एक ऐसे विषय की ओर आकर्षित करना है जो जाने अनजाने में अनदेखा रह जाता है. इमानदारी और बेइमानी का दोराहा - आख़िर हम किसे चुने और क्यों ? बात उन दिनों कि है जब हमारे घर के पास एक नए "मार्जिन फ्री सुपर मार्केट" का शुभारम्भ हुआ था. कहने को तो यह बहुत बडा मार्केट था पर दुकानदार के पास भारी तादाद में कर्मचारी नही थे. गिने चुने सहायको के भरोसे धीरे धीरे इस नए सुपर मार्केट ने अपने व्यवसाय को बढाने का सिलसिला शुरू कर दिया था. शाम के वक़्त अकसर इस सुपर मार्केट में इतनी ज्यादा भीड लग जाती थी कि बिल का भुगतान करने में बहुत समय निकल जाता था. एक ऐसे ही व्यस्त दिन मैंने दाल, चावल, दूध और कुछ अन्य आवश्यक सामानो की खरीदारी की और जल्दी जल्दी बिल का भुगतान कर बचे पैसों को कमीज के जेब में डाल कर घर की ओर रवाना हो गया. घर पहुंचने के बाद जैसे तैसे मैंने सामानो को रसोइघर में नियमित स्थानो पर रखने का काम करने लगा. सब कुछ सजाते सजाते रात के करीब दस बज चुके थे और थकावट की वजह से नींद भी आंखों पर भारी होने लगी थी. तभी मेरा हाथ अनायास ही कमीज के ऊपर वाले जेब की ओर चला गया जहाँ सौ सौ के कुछ नोट अपने उपस्थिति का एहसास करा रहे थे. वैसे तो मै धनलक्ष्मी को हमेशा ही अपने बटुए में रखता हूँ पर इस बार शायद जल्दबाजी में मैने यह नोट कमीज के ऊपर वाले जेब में डाल दिया था. जब मैंने इन नोटों की गिनती की तो मैंने पाया कि ठीक साढ़े चार सौ रुपये जेब में पडे हुए थे. पहले तो मुझे समझ में नही आया कि आखिरकार यह साढ़े चार सौ रुपये आए किधर से है ? निकट भूतकाल में हुए घटनाओ को याद करने से मुझे याद आया कि यह पैसे मैंने सुपर मार्केट से लौटते समय जेब में डाले थे. एक बार मैंने पुनः सुपर मार्केट के बिल पर ध्यान दिया तो पाया कि मैंने करिबन 448/- रुपयों की खरीदारी की थी और बिल का भुगतान करते वक्त मैंने पाँच सौ का एक नोट दुकानदार को दिया था. पर इस हिसाब से तो मुझे सिर्फ़ पचास रुपये वापस मिलने चाहिये थे. तब मुझे एहसास हुआ कि शायद जल्दबाजी में दुकानदार ने पचास रुपये लौटाने के बजाय साढ़े चार सौ रुपये लौटा दिए थे. खैर गलतिया तो सबसे होती है और इस बार दुकानदार की गलती की वजह से मुझे साढ़े चार सौ रुपयों का अनायास ही फायदा हो गया था. एक मिनट के लिए तो मुझे अजीब सी खुशी हुई की सीधे सीधे आर्थिक लाभ, पर कुछ ही देर उपरांत मुझे ऐसा लगा कि यह ग़लत है. मैंने ढेर सारे सामानो की खरीदारी की थी और हिसाब से बिल की धनराशि भी करीबन साढ़े चार सौ रुपयों की थी. अब मेरे सामने एक दोराहा था - (1) चुपचाप जो कुछ हुआ उसे भूल जाउ और ऐसे भी इतने बड़े दुकानदार को साढ़े चार सौ रुपयों की हेरा फेरी से क्या फर्क पड़ेगा ? वैसे भी इस हेरा फेरी में मेरा कुछ लेना देना नही है. जो भी गलती हुई वो दुकानदार की तरफ से हुई है और इसमें मेरा कोई किया कराया नही है. अगर मै ऐसा करु तो मुझे सीधे सीधे साढ़े चार सौ का आर्थिक लाभ होता है. और वैसे भी घर आए धनलक्ष्मी को भला कोई ठुकराता है क्या ? (2) अब चाहे गलती मेरी हो या दुकानदार की, पर जो साढ़े चार सौ रुपये मेरे पास हैं, यकीनन उसपर मेरा कोई हक़ नही है और इमानदारी के नाते यह रकम मुझे दुकानदारको वापस लौटा देने चाहिए. वैसे घर आए धन को लौटाने से मेरा कोई विशेष फायदा तो नही होगा लेकिन दिल में एक शांति रहेगी की मैंने इमानदारी से अपना फर्ज़ तो निभाया है. अब रात के करीबन ग्यारह बज चुके थे और सब दुकान भी बंद हो जाते थे, इसलिए मैंने सोचा कि चाहे जो भी करु, कल ही करना पड़ेगा. रात को सोने से पहले मेरा दिमाग इन दोराहो के बीच एक पेंडुलम की तरह दोलन कर रहा था कि आख़िरकार कौन सा मार्ग उचित है. धीरे धीरे दिमाग ने अपने दोलनकाल की थकावट में निद्रालोक की ओर प्रस्थान किया और मैं अपने स्वप्न्लोक में चला गया. अगले दिन एक नए उमंग के साथ सुर्योदय हुआ और तब तक मेरे दिमाग ने दृढ़ निर्णय ले लिया था कि अब चाहे जो भी हो मै इस साढ़े चार सौ रुपयों को उस दुकानदार को लौटा दूंगा. सुबह सुबह स्नान करने के उपरांत मै करीबन साढ़े नौ बजे पुनः सुपर मार्केट पहुंच गया. वैसे तो दुकान में बहुत ज्यादा भीड नही थी फिर भी दुकान के सभी कर्मचारि मौजुद थे और साथ में कुछ पह्चान के व्यक्ति भी थे. मैंने दुकानदार को अपना पुराना बिल दिखाया तो जाने अनजाने में उसने अपना स्वर तेज किया और कहा - "सर जी, प्लीज कल के सामानो का कम्प्लैंट मत कीजिये, इसीलिए हम हमेशा कहते हैं कि अपने सामानो कि ठीक ठाक जांच कर ले". शायद दुकानदार को ऐसा लगा होगा कि मैं कल के बिल में कुछ खामियो की बात करने आया हूँ. मैंने मुस्कुराते हुए दुकानदार से कहा - "कोई नही सर जी, पहले मेरी बात सुन लीजिए फिर आप अपनी भी बोलियेगा". फिर मैंने उनको समझाया कि उन्होंने गलती से मुझे साढ़े चार सौ रुपये लौटा दिए थे जबकि हिसाब से उन्हें साढे चार सौ रुपये लेने थे. और पुनः हिसाब करते हुए मैंने दुकानदार को चार सौ रुपये लौटा दिए. हमारे वार्तालाप को सुपर मार्केट के अन्य कर्मचारी भी सुन रहे थे और अन्य ग्राहको ने भी अपना ध्यान हमारे लेन देन पर दिया. मेरी इमानदारी से दुकानदार और अन्य दर्शक अत्यन्त गदगद हो उठे और उन्होंने मेरी इमानदारी की भरसक सराहना की. पता नही क्यों, मुझे एक अलग और अदभुत सी खुशी हो रही थी. एक छोटी घट्ना थी, आई और चली गई पर इस घट्ना के बाद मैंने जब भी उस सुपर मार्केट में पुनः प्रवेश किया तो समस्त कर्मचारीगण मेरी ओर एक विशेष आदर भाव से पेश आते हैं. इस छोटे से घटने से मुझे एहसास हुआ कि अगर मैंने उस दिन ग़लत राह को चुना होता तो कितना बडा नुक्सान हो जाता. और ऐसे भी आज के जीवनशैली में साढ़े चार सौ रुपयों का बहुत ज्यादा महत्व नही होता पर इस छोटे से रकम में मैंने जिंदगी का इतना बडा सबब लिया है कि आज भी उस रकम के कारण मुझे जो विशेष आदर मिलता है शायद मैं उसे कितने भी बड़े रकम में नही खरीद सकता. और वैसे भी वो साढे चार सौ रुपये कभी भी मेरे थे ही नही. उस दिन जिन लोगो ने मेरी इमानदारी देखी संभवतः उन्होंने भी अपने जीवन में ऐसे ही इमानदारी से पेश आने के लिए कुछ तो प्रेरणा ली होगी. इमानदारी का रास्ता कभी भी कठिन नही होता पर हमारे मन पर उससे होने वाले दूरगामी लाभो की भली भांति पह्चान नही होती. ऐसे अवसर हम सब के जीवन में आते हैं और आते रहेंगे पर जब जब हम इमानदारी का रास्ता अख्तियार करते हैं तो हमे ना केवल एक सुकुन मिलता है पर साथ साथ इसी समाज में एक विशेष आदर सत्कार भी मिलता है जिसे कभी भी पैसो से खरीदा नही जा सकता. हो सकता है कि वर्तमान या भविष्य में आप भी कभी ऐसे दोराहे में खड़े हो जहाँ आपको इमानदारी और बेइमानी के बीच एक को चुनना हो तो बेहिचक इमानदारी का मार्ग चुनियेगा, वो इसलिए कि ऐसा करने पर आपको इसका लाभ उम्र भर मिलेगा. जबकि बेइमानी के मार्ग में आपको तुरंत कुछ लाभ हो सकता है पर आप एक बहुत महत्वपुर्ण अवसर खो बैठेंगे. हम सभी को हमेशा ऐसे अवसरो की तलाश करनी चाहिए जब हम इस समाज में इमानदारी की कोई ऐसी मिसाल रख सके जिससे समाज का इमानदारी पर पुनः विश्वास जाग्रित हो सके. और इस समाज में अगर आज भी इमानदारी का चलन है तो इसके चलन को रोकने या इसके चलन को बढावा देने के मार्ग में आपका निर्णय एक बहुत बडा योगदान दे सकता है. अतः अगर भविष्य में आप कभी भी अपने आप को ऐसे दोराहे पर पाये जहाँ आपको नज़दीक का फायदा दिखे तो साथ साथ दूर के अवश्यम्भावि नुक्सानो की विवेचना भी किजियेगा क्योंकि यह समाज हमारा ख़ुद का है और हम इस समाज के एक जिम्मेदार नागरिक हैं और हम जैसा बोयेंगे वैसा ही काटेंगे. मेरे ख़ुद के अनुभव से मैंसे महसूस किया है कि मात्र साढ़े चार सौ रुपयों में मैंने जो आदर, सत्कार और गर्व प्राप्त किया है शायद मुझे बहुत ही सस्ते दामो में मिल गया जिसके लिए मैं अपने उस दिन के निर्णय पर उमर भर फक्र करता रहुंगा. अतीत के अंधेरों में खोया एक महान वैज्ञानिक
कहते हैं महानता की कोई स्थिर परिभाषा नहीं होती | भगवान के बनाए हुए इस अलौकिक संसार में हर एक इंसान किसी ना किसी दृष्टिकोण में महान है | परन्तु भगवान की माया भी बहुत विचित्र है | इस मायालोक में ऐसे अनगिनत महान व्यक्तित्व हैं जो अतीत के अंधेरों में खो गए हैं या यूँ कहूँ कि अतीत के अनपलटे पन्नो में गुम हो गए हैं | इस छोटे से लेख के माध्यम से मैं एक ऐसे ही महान वैज्ञानिक को अपनी श्रद्धांजलि प्रस्तुत करना चाहता हूँ जिसने परिसीमा स्तर भौतिकी जैसे जटिल विषय को एक विशेष दर्जा दिलाया और करीबन 110 वर्ष पूर्व विज्ञान के इस नए अध्याय की नीव रखी थी | बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में विज्ञान का एक ऐसा दौर चल रहा था जब तरल पदार्थों की वास्तविक बहाव की परिस्थितियों में नेविएर-स्टॉक समीकरणों के सही सही समाधान प्राप्त करने में समस्त वैज्ञानिकों को महज असफलता ही हाथ लग रही थी | ऐसे कठिन दौर में विल्बेर राईट और ऑर्विल राईट बंधुओं ने अपने अथक प्रयासों से मानवयुक्त एक ऐसे जहाज का निर्माणकार्य अपने कंधों में ले रखा था जिससे एक असंभव से लगने वाले मानव के आकाश में उड़ने के सपने के सच होने की राहें धीरे धीरे साफ़ होने लगी थी, परन्तु राईट बंधुओं को भी उनके जहाज से संबंधी गणितीय पहलुओं को पूर्णतः समझने के लिए नेविएर-स्टॉक समीकरणों का बारीकी से विश्लेषण करना था | अनुभवहीनता के बावजूद अपने कभी ना थकने वाले रवैये के कारण 17 दिसंबर 1903 को आखिरकार राईट बंधुओं के सामने समस्त मुश्किलों ने अपने घुटने टेक दिए और उनके द्वारा बनाया हुआ जहाज आकाश में उड़ने में सफल रहा | इस सफल उड़ान से यह भी साबित हो गया कि विज्ञान के युग में कोई भी आविष्कार किसी सैधांतिक मदद का मोहताज नहीं होता | कुछ ऐसी परिस्थितियों के दौरान 8 अगस्त 1904 को जर्मनी के हैदेल्बेर्ग शहर में स्थित जर्मनी के सबसे पुराने विश्वविद्यालय में अंतरराष्ट्रीय गणितीय कांग्रेस के तृतीय अधिवेशन का आयोजन किया जा रहा था | इस अधिवेशन में गणितज्ञों और वैज्ञानिकों का एक छोटा समूह एकत्रित हुआ था | इस अधिवेशन में एक 29-वर्षीय युवा प्रोफेसर लुडविग प्रेंड्तल को अपने शोध पत्र को प्रस्तुत करने का अवसर दिया गया था | वैसे तो लुडविग प्रेंड्तल जर्मनी में हैनोवर के एक छोटे से तकनीकी विश्वविद्यालय में अस्थायी तौर पर प्रोफेसर की पदवी पर कार्यरत थे, परन्तु अधिवेशन में समयाभाव के चलते उनके शोध पत्र को प्रस्तुत करने के लिए महज 10 मिनट का समय दिया गया था | वास्तव में 10 मिनट (= 600 सेकंड) का समय बहुत अल्प होता है पर इस युवा प्रोफेसर के लिए इतना समय पर्याप्त था और उन्होने इन 10 मिनटों में तरल गतिकी से संबंधित एक बिल्कुल नई अवधारणा को वैज्ञानिकों के सामने प्रस्तुत किया | प्रोफेसर लुडविग प्रेंड्तल द्वारा किए गए शोध पत्र का शीर्षक था - "बहुत कम चिपचिपापन के साथ तरल पदार्थ की गति (Motion of Fluids with Very Little Viscosity)" | कहने को तो इस शोध पत्र की प्रस्तुति में महज 10 मिनट लगे थे, पर इस पत्र में प्रस्तुत अवधारणाओं ने तरल गतिकी में एक ऐसा क्रांतिकारी बदलाव उत्पन्न किया कि आज भी वायु गतिकी एवं तरल गतिकी विज्ञान में लुडविग प्रेंड्तल का नाम बहुत सम्मान के साथ लिया जाता है | पर वास्तविकता में एक ऐसे महान शोध पत्र को तत्कालीन वैज्ञानिकों ने बहुत गंभीरता से नहीं लिया था | इस शोध पत्र की प्रस्तुति के करीबन एक वर्ष उपरांत अंतरराष्ट्रीय गणितीय कांग्रेस द्वारा उसके तृतीय अधिवेशन में प्रस्तुत समस्त शोध पत्रों को संगोष्ठी की कार्यवाही में प्रकाशित किया गया और लुडविग प्रेंड्तल का शोध पत्र इस प्रकार विश्व के विभिन्न वैज्ञानिकों के सामने चर्चा हेतु सामने आया | अपने आठ पन्नो में प्रस्तुत शोध पत्र में लुडविग प्रेंड्तल ने पहली बार परिसीमा स्तर की अवधारणा का उल्लेख किया था जिसके अनुसार उन्होंने यह बताया था कि घर्षण की वजह से किसी ठोस पदार्थ पर बहते हुए तरल पदार्थ की गति परिसीमा स्तर पर शुन्य हो जाती है | वैसे तो लुडविग प्रेंड्तल द्वारा प्रस्तुत शोधकार्य हर दृष्टि से नोबल पुरस्कार पाने के योग्य था, परन्तु उनके नाम पर कभी भी नोबल समिति ने विचार नहीं किया गया | कुछ वैज्ञानिकों का ऐसा मानना है कि नोबल समिति उन दिनों शास्त्रीय भौतिकी में संपन्न कार्य को इतने ऊँचे पुरस्कार के योग्य मानने के पक्ष में नहीं थी | लुडविग प्रेंड्तल द्वारा प्रस्तुत परिसीमा-स्तर के नए अवधारणा के साथ साथ वायुगतिकिय खींच (aerodynamic drag) की गणना संभव हो चुकी थी | इसके साथ ही लुडविग प्रेंड्तल ने यह भी बताया था कि नेविएर-स्टॉक के समीकरणों को परिसीमा-स्तर के लिए और भी सरल रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है | अपने शोध पत्र में लुडविग प्रेंड्तल ने महज एक बार "परिसीमा-स्तर" शब्द का प्रयोग किया था परन्तु यह शब्द धीरे धीरे वैज्ञानिक शब्दकोश में अपना स्थान बनाने लगे थे | लुडविग प्रेंड्तल के इस शोध पत्र के उपरांत उनके छात्रों ने परिसीमा-स्तर शब्द का बार बार उल्लेख किया है | तत्कालीन शोधकर्ताओं एवं वैज्ञानिकों के प्रोत्साहन के अभाव में लुडविग प्रेंड्तल का यह महत्वपूर्ण कार्य काफ़ी लम्बे समय तक उतनी ख्याति प्राप्त नहीं कर सका जितना वास्तविकता में उसे मिलना चाहिए था | इस शोध पत्र के प्रकाशित होने के करीबन 15 वर्ष पश्चात सन् 1920 में जब वैज्ञानिक अपना शोध हवाईजहाज के विभिन्न पहलुओं पर कर रहे थे तो उनका ध्यान पुनः लुडविग प्रेंड्तल द्वारा दिए गए परिसीमा-स्तर के अवधारणा पर जा टिकी जो धीरे धीरे मील का पत्थर साबित हो रही थी | सन् 1928 में तरल गतिकी के महान वैज्ञानिक सिडनी गोल्डस्टीन ने लुडविग प्रेंड्तल से पूछा कि उनका शोध पत्र इतना छोटा क्यों था तो जवाब में लुडविग प्रेंड्तल ने बहुत ही शालीनता से कहा कि उनका मानना था कि चूँकि उन्हें शोधपत्र प्रस्तुत करने के लिए महज 10 मिनट का समय दिया गया था अत: उन्हें काफ़ी संक्षेप में ही अपना शोधपत्र भी लिखना पड़ेगा | लुडविग प्रेंड्तल के जवाब में उनकी सादगी झलकती थी | इस वैज्ञानिक की सबसे बड़ी उपलब्धि उनकी सरलता थी | चाहे तरल भौतिकी की समस्या कितनी भी जटिल क्यों ना हो, लुडविग प्रेंड्तल को यकीन था कि हर समस्या का एक सरल समाधान होता है | उनकी ये सरलता ही थी जिसके फलस्वरूप उन्होने परिसीमा-स्तर भौतिकी जैसे बहुत जटिल विज्ञान को बड़े ही सहज तरीके से प्रस्तुत किया और कभी भी इस सहजता का तोहफा उन्हे नहीं मिला | तरल भौतिकी शास्त्र में अपने महत्वपूर्ण योगदान के लिए लुडविग प्रेंड्तल को हमेशा पितामह के रूप में जाना जायेगा | अगस्त 1953 के प्रारंभ में इस महान पुरुष को मस्तिष्क में ज्वर की शिकायत हुइ और उन्हें अस्पताल में भर्ती किया गया | धीरे धीरे लुडविग प्रेंड्तल की सेहत बिगडने लगी थी और शायद उनको भी इस बात का अन्देशा होने लगा था कि उनका अंत नजदीक है पर उन्होंने बहुत ही सहज रूप में अस्पताल के कर्मचारियों से एक अटूट रिश्ता बना लिया | अन्तत: 15 अगस्त 1953 को लुडविग प्रेंड्तल का इंतकाल हो गया और एक महान वैज्ञानिक अतीत के पन्नो में इतिहास बनकर हमेशा हमेशा के लिए विलीन हो गया | लुडविग प्रेंड्तल की मृत्यु के चार वर्ष उपरांत उनके सम्मान में वैमानिकी विज्ञान (Society for Aeronautical Sciences) द्वारा लुडविग प्रेंड्तल के नाम पर एक विशिष्ट पुरस्कार की स्थापना की गई जिसमे वैमानिकी विज्ञान शाखा में विशेष योगदान के लिए एक युवा वैज्ञानिक को सोने का एक रिंग दिया जाता है, और इस सम्मान को लुडविग प्रेंड्तल रिंग के नाम पर याद किया जाता है | 4 फरवरी 1957 को लुडविग प्रेंड्तल की जन्मतिथि पर सर्वप्रथम तरल भौतिकी के महविद श्री वॉन कर्मान को इस सर्वोच्च पुरस्कार से सम्मानित किया गया | आज बेशक़ लुडविग प्रेंड्तल हमारे बीच नहीं है परन्तु उनके सादगी भरे व्यक्तित्व से हमे बहुत कुछ सिखने को मिलता है | आज के युग में हम ख्याति प्राप्त करने के लिए एक दूसरे के खिलाफ लडने को तैयार हो जाते हैं | सबसे पहले रहने के होड में हम यह भी भूल जाते हैं कि महानता की कोई परिभाषा नहीं होती और महान बनने के लिए हमें किसी व्यक्ति विशेष की ना ही पूजा अर्चना करने की आवश्यकता है और ना ही किसी की आलोचना, बल्कि मेहनत का रास्ता अख्तियार करना पडता है | लुडविग प्रेंड्तल की सादगी ने एक बिलकुल नए अध्याय की शुरुवात महज 10 मिनट के प्रस्तुतिकरण से की थी जिसका सबब यह है कि अगर हममे दृढ़निश्चय हो तो किसी भी बहाने की जरुरत ही नहीं पडती, और हम अपना पक्ष कम से कम समय में भी प्रस्तुत कर सकते हैं | इन तथ्यों के अलावा एक और निष्कर्ष यह भी निकलता है कि लुडविग प्रेंड्तल के शोधकार्य को एक विशेष दर्जा मिलने में बहुत लंबा समय लग गया था पर उन्होंने कभी भी हार नहीं मानी और अन्तत: उनके शोधकार्य को सही समय पर पूरी तरह से स्वीकार भी किया गया | हमारे जीवन में भी ऐसे बहुत अवसर आते हैं जब सच्चाई का पक्ष रखने के बावजुद, समाज उसे अनदेखा कर देता है परन्तु इसका मतलब यह नहीं कि सच्चाई की हार हो गई हो | कठिन कार्य की ज्यादतर अनदेखि होती है परन्तु एक लंबे अंतराल के पश्चात उसका फल निश्चित रूप से मीठा ही होता है | शायद इसीलिये कहा जाता है कि रात में सबसे ज्यादा अंधेरा हो तो जान लेना चाहिए कि जल्द ही सबेरा होने वाला है | एक असंतुलित समाज
हम सभी इंसानो में ज्यादातर लोगों की दिनचर्या सुबह सुबह चाय-नाश्ते के साथ अखबार की सुर्खियों को पढने के साथ होती है | पता नहीं अखबार की उन सुर्खियों में ऐसा क्या खास होता है कि जब तक एक बार मुख्य खबरों को देख ना लें, सारा का सारा दिन अधूरा सा लगता है | बावजूद इस सच के, इस समाज की एक और कड़वी सच्चाई यह भी है कि हमारे ज्यादातर अखबारों में प्रथम पृष्ठ पर दिल दहला देने वाले समाचार ही होते हैं - "एक अबला के साथ ****", "रेल हादसे में 37 मारे गए", "प्रेम में असफल जोड़े ने आत्म्हत्या किया", "रुपया डॉलर के मुकाबले और भी गिरा", "सेंसेक्स फिर गिरा" | क्या वाकई में हमारे पास ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे पढ़ कर हम हर्ष का अनुभव कर सकें ? इस प्रश्न का उत्तर बहुत ही साधारण है - हाँ अथवा नहीं | जिस प्रकार एक सिक्के के दो पहलू होते हैं, ठीक उसी प्रकार इस सवाल के भी दो जवाब हो सकते हैं | इस छोटे से लेख के जरिये मै एक छोटा सा प्रयास करना चाहता हूँ कि इस असंतुलित समाज को कुछ हद तक संतुलन में लाया जा सके | सबसे पहले मैं यह स्पष्ट करना चाहता हूँ कि मैने इस समाज को असंतुलित क्यों कहा है | अगर इस समाज में फरिश्ते हैं तो इसी समाज में दानवरुपी शैतान भी हैं जो हमेशा एक असंतुलन कायम रखते हैं | पर क्या यह सच नहीं है कि फरिश्ते और शैतान दोनो ही किसी माँ के कोख से ही जन्म लेते हैं | जब किसी इनसान का जन्म होता है तो ना ही वह शैतान होता है और ना ही एक फरिश्ता | इस समाज के परिवेश में वह इनसान या तो एक शैतान बन जाता है या एक फरिश्ता | पर यह भी तो संभव है कि हमारा समाज इन दोनों के बीच के फासलो को कम करने का प्रयास करे | शायद इस दिशा में हमारा प्रयास कभी भी सार्थक नहीं हुआ है | हमारे अंदर का दानवरुपी शैतान ख़ुद भ्रष्ट काम करने के लिए हमें उकसाता है और दूसरों से ईमानदारी की उम्मीद रखता है | भगवान के बनाए हुए इस समाज में भगवान ने हर प्रकार की सुख सुविधाये प्रदान की है, पर जान बुझ कर भगवान ने कुछ ऐसा असंतुलन बना दिया है कि हम लाख कोशिशों के बावजूद इस असंतुलन को कम नहीं कर पाते | वैसे तो हर इनसान के पास भगवान का दिया कुछ ना कुछ है, परन्तु इनसान की चाहतों की कोइ सीमा नहीं होती | अगर आज हमारे पास रहने को घर, खाने को संपूर्ण भोजन और पहनने को कपड़े हैं तो वास्तविकता में हम बहुत अमीर हैं क्योंकि आज अनगिनत इनसान ऐसे भी हैं जिनके पास इन तीनों में से एक भी वस्तु पर्याप्त में नहीं है | अगर ऐसे माहौल में हमें कभी भी अवसर मिले तो उन गरीबों को यथाशक्ति तथाभक्ति दान करने में हिचकिचाहट नहीं करनी चाहिए, पर सच्चाई यह है कि हम भगवान से शिकायत करते हैं कि - "भगवान, मुझे और पैसा दे दो ताकि मैं एक नइ चमचमाती हुइ कार खरीद सकूँ" | और कार भी इसलिए नहीं कि हमें सच में एक कार चाहिए बल्कि इसलिए कि हमारे पड़ोसी शर्मा जी ने नइ कार जो ले ली है | एक नज़रिया यह है कि अगर हम पैसा कमा रहे है तो हमारी मर्जी, हम जो जी चाहे वह करें | कहने को तो मैं भी इसके खिलाफ नहीं हूँ पर क्या हम ऐसा कुछ कर सकते हैं जिससे जो हमारे पास पर्याप्त मात्रा में है, उसे दूसरों के साथ बाँट सकें ? अगर इस पहलू का जवाब सकारात्मक हो तो कभी भी संकोच ना करें | कुछ दिनो पूर्व जब मैंने दूरदर्शन पर भ्रूण हत्या पर एक कार्यक्रम देखा था तो मेरा दिल दहल गया था | कैसे कोई इनसान एक भ्रूण की हत्या कर सकता है, जबकि इस असंतुलित समाज की सच्चाई यह भी है कि न जाने कितने संतानरहित जोड़े एक ऐसे ही भ्रूण प्राप्ति के लिए न केवल भगवान से प्रार्थना करते हैं बल्कि अपना इलाज भी करवाते हैं | और आज के दिन भी एक कटु वास्तविकता यह है कि जिन्हे संतान चाहिए उन्हे संतान नहीं मिलता और जिन्हें संतान प्राप्ति का द्वार दिखता है वो बड़े ही निर्दयता से एक भ्रूण को इस समाज में आने से पहले भी मार डालते हैं | क्या यह समाज के असंतुलन का बयान नहीं करता ? आज के कलयुग में एक तरफ हम इक्कीसवीं शताब्दी में विज्ञान के नए अजूबों की बात करते है तो दूसरी तरफ़ दकियानूसी जातपाँत के बेड़ियों में बन्धे रहना पसंद करते हैं | ऐसे अनगिनत प्रेमी युगल हैं जो खुशी खुशी विवाह कर सफल दाम्पत्य जीवन प्रारंभ करना चाहते हैं, परन्तु इस असंतुलित समाज द्वारा कायम जातपाँत की बेड़ियों में उन्हें विवश कर रखा है और वो महज एक बूत बनकर रह जाते हैं | और अगर किसी ने इन बेड़ियों को तोड़ने का प्रयास किया तो समाज के ठेकेदारों को जरा भी देर नहीं लगती और वो अपना शक्ति प्रदर्शन करने लगते हैं | क्या ऐसे समाज को अब भी आप संतुलित कहेंगे ? कहने को अखिलेश और राजन (काल्पनिक नाम) भी काफ़ी गहरे दोस्त थे जब उन्होने साथ-साथ इसरो में दाखिला लिया था और साथ-साथ आईआईटीपी का कोर्स पूरा किया था, पर आज दोनों की बिल्कुल भी नहीं बनती | वह इसलिए कि राजन की पदोन्नति अखिलेश से 6 महीने पहले हो गइ और आज के दिन राजन की पगार अखिलेश से करीबन 900/- रुपये ज्यादा है | महज 900/- रुपयों के फासलो ने दोनों के बीच बहुत बड़ी दरार खड़ी कर दी है | पर क्या यह भी सच्चाई नहीं है कि आज राजन का आयकर अखिलेश से ज्यादा है ? पर समाज का एक बड़ा तबका इस असंतुलन को हमेशा कायम रखना चाहता है, और जब तक राजन और अखिलेश की दोस्ती की गहराई ऐसे असंतुलन को संतुलित करने का प्रयास नहीं करें, तब तक यह असंतुलन तो बना ही रहेगा | हमारे राहुल (काल्पनिक नाम) की बात कीजिये | अगर उसके सामने कोई खूबसूरत सी लड़की निकल जाए तो जाने-अनजाने में छेड़खानी हो ही जाती है - "वाह क्या जीन्स पहनी है, क्या बात है, वगैरह वगैरह ..." | पर जब राहुल की बहन पर कोई टीपा-टिप्पणी करें तो साहबज़ादे का खून खौल उठता है | अजीब है - इस समाज की असंतुलित लीला | भाइ साहब - कभी तो कुछ ऐसे काम भी करें जिससे इस असंतुलित समाज के असंतुलन को कम किया जा सके | अगर आपको कोई लड़की उतनी ही पसंद आ गई हो तो एक शालीन तरीके से उससे दोस्ती करें और विवाह रचाये | पर विवाह के नाम पर भाइ साहब की बिलकुल अलग विचार धारा है | "मेरी पत्नी एक शालीन से साडी में ही बाहर आए तो अछी दिखती है" | वाह भइ वाह - क्या विचारधारा है | वैसे तो कहने के लिए बहुत उदाहरणों को पेश किया जा सकता है, पर मुझे तो यह समाज पुरी तरह से असंतुलित ही दिखता है | लेकिन मुझे इस असंतुलित समाज में भगवान के बनाए हुए ऐसे बहुत फरिश्ते भी नजर आते हैं जो इस असंतुलन को कम करने का निरंतर प्रयास करते रहते हैं | हो सकता है कि आप के जीवन में भी आपको ऐसे नेकदिल इनसान मिलें | अगर कभी भी आप ऐसे फरिश्तों से रूबरू हो तो प्रयास कीजियेगा कि आप उनके हौसलों को और बढाये | क्या पता - आपका एक छोटा सा प्रयास इस असंतुलित समाज के संतुलन को बनाये रखने में सार्थक प्रयास साबित हो और ऐसे अनगिनत प्रयासों से इस कलयुग में अखबारों की सुर्ख़ियाँ ही बदल जाए और आने वाली पीढ़ी एक संतुलित समाज का हिस्सा बन जाए | एक अविस्मरणीय मुलाकात
एक ऐसी अविस्मरणीय मुलाकात, जिसके गुजरे करीबन डेढ़ दशक हो चुके हैं परन्तु ऐसा लगता है जैसे कल परसों की ही बात हो | बात उन दिनों की है, जब मैं जिंदगी के एक ऐसे कठिन दौर से गुजर रहा था जब बावजूद मेरे अथक प्रयासों के मुझे कोइ भी नौकरी नही मिल रही थी | कहने को भिलाई (तत्कालीन मध्यप्रदेश, अब छत्तीसगढ़) में अस्थायी तौर पर एक शिक्षक की नौकरी तो थी पर दिल में कुछ और ही कर गुजरने का सपना लगातार एक दस्तक देता रहता था | कुछ ऐसे ही अरमानो को दिल में लिए सन् 1997 में मैने पहली बार तिरुवनंतपुरम की पावन भूमि में प्रवेश किया था | दरअसल मुझे विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केन्द्र में कनिष्ठ अनुसंधान अध्येतावृत्ति (जूनियर रिसर्च फ़ेल्लोशिप) के चयन के लिए एक लिखित परीक्षा में सम्मिलित होने के लिए प्रवेश पत्र प्राप्त हुआ था | गरीबी के उस दौर में मैंने आपने मामूली बचत से तिरुवनंतपुरम आने जाने का रेल टिकट निकाला और भौतिकी शास्त्र की कुछ किताबों से मनोरंजन करता हुआ भिलाई से लम्बे रेल यत्र पर चल पड़ा | एक छोटे से कामचलाऊ होटल में 70/- रुपया प्रतिदिन के हिसाब से मैंने दो दिनो के लिए अपना अस्थायी तम्बू गाड दिया | उस शनिवार को जब पहली बार मैंने वि.एस.एस.सी प्रांगण में लिखित परीक्षा में हिस्सा लेने के लिए प्रवेश लिया तो नारियल पेड़ों से घिरे हुए इस सुंदर कार्यालय को देखा तो मेरी आँखें एक अनायास आशाओं से भर गयी | पुस्तकालय वाले प्रमुख कार्यालय के ऊपर भारत देश का सुंदर तिरंगा झंडा इस प्रांगण को और भी सुंदर बना रहा था | धीरे धीरे शाम होते होते अंतरिक्ष भौतिकी प्रयोगशाला द्वारा संपन्न उस परीक्षा में मुझे ऊत्तीर्ण घोषित किया गया और रविवार को "साक्षात्कार" के लिए निमंत्रण मिल गाया | अब एक बात तो तय था कि "साक्षात्कार" का चाहे जो भी परिणाम हो, मुझे आने जाने का यात्रा भत्ता मिल जायेगा | और मै ऐसे सुनहरे अवसर को गँवाना नही चाहता था, इसलिए उस रात मैंने अपना पूरा दमखम लगा दिया | नींद तो वैसे भी कोसों दूर् थी, इसलिए सुबह जल्दी उठ कर पास के गणपति मंदिर (पल्लवंगदि) में 6 बजे दर्शन कर पुनः वि.एस.एस.सी प्रांगण पहुँच गया | आखिरकार मेरी मेहनत रंग लाई और मुझे अप्रैल 1998 से 2500/- प्रति माह की इसरो अनुसंधान अध्येतावृत्ति के लिए चुन लिया गया | अप्रैल 1998 के प्रथम सप्ताह में समस्त प्रशासनिक औपचारिकताओं के उपरांत मुझे इसरो, वि.एस.एस.सी का पहचान पत्र जारी कर दिया गया | उस नए पहचान पत्र को अपने छाती पर लगा देख् मुझे अपने आप पर काफ़ी गर्व हुआ | मैं भगवान का बहुत शुक्रगुजार हूँ कि आज भी इस गौरवान्वित संगठन का मैं एक सदस्य हूँ | उस दिन सुबह क़रीब 05:30 बजे मैं पुनः गणपति मन्दिर दर्शन हेतु पहुँचा | उन दिनों 24 नम्बर की बस पल्लवंगदि के पास से जाया करती थी इसलिए मैं अपना पहचान पत्र लगाकर गणपति भगवान के आरती में हिस्सा ले रहा था | आरती संपन्न होने के उपरांत एक अधेड़ उम्र के सीधे साधे सज्ज्न मेरे पास आए और हल्के मुस्कान के साथ अभिनंदन किया | मैंने भी पुरे आदर के साथ उन्हे नमस्कार किया | मेरे पहचान पत्र को देखते हुए उन्होने मुझसे अंग्रेज़ी में पूछा - "आप कहाँ काम करते हैं ?" | मैंने बड़े गर्व से उत्तर दिया - "सर, मैं इसरो के विक्रम साराभाई अंतरिक्ष केन्द्र में काम करता हूँ" | उन्होंने से मेरे बोलने के अंदाज़ पर ध्यान दिया और संवाद को आगे बढ़ाते हुए पुनः पूछा - "आप थोड़े नए लगते हो, आपका घर किधर है ?" | मैंने जवाब दिया - "भिलाई, सर आपने भिलाई स्टील प्लांट का नाम सुना होगा !". उन्होंने आश्चर्य से मेरी तरफ देखा और पूछा - "आप भिलाई से इतनी दूर आयें हैं ?" | मैंने भी दिलचस्पी लेते हुए बड़े गौर से अपना पहचान पत्र दिखाते हुए उनसे कहा - "सर, वि.एस.एस.सी इसरो का सबसे बड़ा और गौरवशाली केन्द्र है और मैं इसका सदस्य बनकर अपने आप को बहुत गौरवशाली समझता हूँ" | उस अजनबी सज्जन के चेहरे पर एक अदभुत चमक थी | उन्होंने मुझसे हाथ मिलाया और कहा - "आपसे मिलकर खुशी हुइ, हमेशा अपनी तरफ से पूरी मेहनत लगाकर काम कीजियेगा | हर संगठन अपने सदस्यों के कारण गौरवान्वित होता है, आपके उज्ज्वल भविष्य के लिए मेरी शुभकामना आपके साथ है" | इतने वार्तालाप के बाद मुझे उस अजनबी का नाम और काम पूछने की तीव्र इच्छा हुई, परन्तु वो थोड़े जल्दी में दिख रहे थे | थोड़ा साहस करते हुए मैंने उनसे पूछा - "सर, क्या आप रोज़ यहाँ आते हैं, और क्या मैं आपका नाम जान सकता हूँ ?" जल्दबाजी की वजह से वो मुस्कुराये और उन्होंने कहा - "आल द बेस्ट" | माथे पर चमकते हुए चंदन का टीका लगाये इस अजनबी पुरुष से ये मुलाकात बहुत जल्दी समाप्त हो गयी | मैं धीरे धीरे अपने आप को इस नए संगठन में ढालने लगा था | इतने बड़े संगठन में अलग अलग कार्यालयों को जानने पहचानने में काफी समय लग जाता है | अभी कुछ ही दिन और हुए थे कि मुझे उस अजनबी से मुलाकात करने का पुनः सौभाग्य मिला परन्तु इस बार उन्हें अपने वि.एस.एस.सी प्रांगण में देख कर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ | मेरे दिल की धड़कने और भी बढ़ गयी जब मेरे मित्रों ने बताया कि वह् सज्जन हमारे केन्द्र के निदेशक डा. एस.श्रीनिवासन हैं | मुझे बिल्कुल भी यकीन नही हुआ, पर यह सच है कि उतने बड़े वैज्ञानिक ने मुझसे दो पल बातें की थी | 1 सितंबर 1999 को इस महान वैज्ञानिक का निधन हो गया | उनके निधन के अगले दिन वि.एस.एस.सी प्रांगण में एक विशाल शोकसभा का आयोजन हुआ था और मुझे ऐसे महान वैज्ञानिक के जीवनशैली के बारे में जानने का अवसर मिला | भगवान ने उनसे मिलने का मौका तो नही दिया पर जब भी उस मुलाकात के बारे में सोचता हूँ तो एक महान व्यक्तित्व मनसपटल पर दस्तक देता है, और अपने सादेपन की याद दिला जाता है | उन्होंने बिलकुल सच कहा था - "कोई भी संगठन अपने सदस्यों के कार्यकलापों और सादगी से महान बनता है" | |
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October 2021
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