साढे चार सौ का रिश्ता
कभी कभी जीवन में हम ऐसे दोराहे पर आ जाते हैं जहाँ हमें तत्काल फैसला करना होता है कि हम कौन सा मार्ग चुनें ? अगर ऐसी परिस्थिति किसी मित्र या रिश्तेदार की जिंदगी में हो तो सुझाव देना बहुत ही आसान होता है. और आसान तो होना ही है क्योंकि उसके परिणाम से हमें ख़ुद कोई लेना देना नही होता. शायद इसीलिये कहा जाता है कि - "सलाह ही एकमात्र वस्तु है जिसकी भरपाई हमेशा ही मांग से ज्यादा होती है (Advice is only the drug in the market, whose supply always exceeds the demand). परन्तु समस्त जीवन में ऐसी परिस्थितियों का बारीकि से अवलोकन किया जाए तो उनसे निकलने वाले निष्कर्ष इतने ज्यादा अमूल्य होते हैं कि उनकी तुलना किसी भी सबक से नही की जा सकती. प्रस्तुत लेख के द्वारा मेरा प्रमुख उद्देश्य समस्त पाठको का ध्यान एक ऐसे विषय की ओर आकर्षित करना है जो जाने अनजाने में अनदेखा रह जाता है. इमानदारी और बेइमानी का दोराहा - आख़िर हम किसे चुने और क्यों ? बात उन दिनों कि है जब हमारे घर के पास एक नए "मार्जिन फ्री सुपर मार्केट" का शुभारम्भ हुआ था. कहने को तो यह बहुत बडा मार्केट था पर दुकानदार के पास भारी तादाद में कर्मचारी नही थे. गिने चुने सहायको के भरोसे धीरे धीरे इस नए सुपर मार्केट ने अपने व्यवसाय को बढाने का सिलसिला शुरू कर दिया था. शाम के वक़्त अकसर इस सुपर मार्केट में इतनी ज्यादा भीड लग जाती थी कि बिल का भुगतान करने में बहुत समय निकल जाता था. एक ऐसे ही व्यस्त दिन मैंने दाल, चावल, दूध और कुछ अन्य आवश्यक सामानो की खरीदारी की और जल्दी जल्दी बिल का भुगतान कर बचे पैसों को कमीज के जेब में डाल कर घर की ओर रवाना हो गया. घर पहुंचने के बाद जैसे तैसे मैंने सामानो को रसोइघर में नियमित स्थानो पर रखने का काम करने लगा. सब कुछ सजाते सजाते रात के करीब दस बज चुके थे और थकावट की वजह से नींद भी आंखों पर भारी होने लगी थी. तभी मेरा हाथ अनायास ही कमीज के ऊपर वाले जेब की ओर चला गया जहाँ सौ सौ के कुछ नोट अपने उपस्थिति का एहसास करा रहे थे. वैसे तो मै धनलक्ष्मी को हमेशा ही अपने बटुए में रखता हूँ पर इस बार शायद जल्दबाजी में मैने यह नोट कमीज के ऊपर वाले जेब में डाल दिया था. जब मैंने इन नोटों की गिनती की तो मैंने पाया कि ठीक साढ़े चार सौ रुपये जेब में पडे हुए थे. पहले तो मुझे समझ में नही आया कि आखिरकार यह साढ़े चार सौ रुपये आए किधर से है ? निकट भूतकाल में हुए घटनाओ को याद करने से मुझे याद आया कि यह पैसे मैंने सुपर मार्केट से लौटते समय जेब में डाले थे. एक बार मैंने पुनः सुपर मार्केट के बिल पर ध्यान दिया तो पाया कि मैंने करिबन 448/- रुपयों की खरीदारी की थी और बिल का भुगतान करते वक्त मैंने पाँच सौ का एक नोट दुकानदार को दिया था. पर इस हिसाब से तो मुझे सिर्फ़ पचास रुपये वापस मिलने चाहिये थे. तब मुझे एहसास हुआ कि शायद जल्दबाजी में दुकानदार ने पचास रुपये लौटाने के बजाय साढ़े चार सौ रुपये लौटा दिए थे. खैर गलतिया तो सबसे होती है और इस बार दुकानदार की गलती की वजह से मुझे साढ़े चार सौ रुपयों का अनायास ही फायदा हो गया था. एक मिनट के लिए तो मुझे अजीब सी खुशी हुई की सीधे सीधे आर्थिक लाभ, पर कुछ ही देर उपरांत मुझे ऐसा लगा कि यह ग़लत है. मैंने ढेर सारे सामानो की खरीदारी की थी और हिसाब से बिल की धनराशि भी करीबन साढ़े चार सौ रुपयों की थी. अब मेरे सामने एक दोराहा था - (1) चुपचाप जो कुछ हुआ उसे भूल जाउ और ऐसे भी इतने बड़े दुकानदार को साढ़े चार सौ रुपयों की हेरा फेरी से क्या फर्क पड़ेगा ? वैसे भी इस हेरा फेरी में मेरा कुछ लेना देना नही है. जो भी गलती हुई वो दुकानदार की तरफ से हुई है और इसमें मेरा कोई किया कराया नही है. अगर मै ऐसा करु तो मुझे सीधे सीधे साढ़े चार सौ का आर्थिक लाभ होता है. और वैसे भी घर आए धनलक्ष्मी को भला कोई ठुकराता है क्या ? (2) अब चाहे गलती मेरी हो या दुकानदार की, पर जो साढ़े चार सौ रुपये मेरे पास हैं, यकीनन उसपर मेरा कोई हक़ नही है और इमानदारी के नाते यह रकम मुझे दुकानदारको वापस लौटा देने चाहिए. वैसे घर आए धन को लौटाने से मेरा कोई विशेष फायदा तो नही होगा लेकिन दिल में एक शांति रहेगी की मैंने इमानदारी से अपना फर्ज़ तो निभाया है. अब रात के करीबन ग्यारह बज चुके थे और सब दुकान भी बंद हो जाते थे, इसलिए मैंने सोचा कि चाहे जो भी करु, कल ही करना पड़ेगा. रात को सोने से पहले मेरा दिमाग इन दोराहो के बीच एक पेंडुलम की तरह दोलन कर रहा था कि आख़िरकार कौन सा मार्ग उचित है. धीरे धीरे दिमाग ने अपने दोलनकाल की थकावट में निद्रालोक की ओर प्रस्थान किया और मैं अपने स्वप्न्लोक में चला गया. अगले दिन एक नए उमंग के साथ सुर्योदय हुआ और तब तक मेरे दिमाग ने दृढ़ निर्णय ले लिया था कि अब चाहे जो भी हो मै इस साढ़े चार सौ रुपयों को उस दुकानदार को लौटा दूंगा. सुबह सुबह स्नान करने के उपरांत मै करीबन साढ़े नौ बजे पुनः सुपर मार्केट पहुंच गया. वैसे तो दुकान में बहुत ज्यादा भीड नही थी फिर भी दुकान के सभी कर्मचारि मौजुद थे और साथ में कुछ पह्चान के व्यक्ति भी थे. मैंने दुकानदार को अपना पुराना बिल दिखाया तो जाने अनजाने में उसने अपना स्वर तेज किया और कहा - "सर जी, प्लीज कल के सामानो का कम्प्लैंट मत कीजिये, इसीलिए हम हमेशा कहते हैं कि अपने सामानो कि ठीक ठाक जांच कर ले". शायद दुकानदार को ऐसा लगा होगा कि मैं कल के बिल में कुछ खामियो की बात करने आया हूँ. मैंने मुस्कुराते हुए दुकानदार से कहा - "कोई नही सर जी, पहले मेरी बात सुन लीजिए फिर आप अपनी भी बोलियेगा". फिर मैंने उनको समझाया कि उन्होंने गलती से मुझे साढ़े चार सौ रुपये लौटा दिए थे जबकि हिसाब से उन्हें साढे चार सौ रुपये लेने थे. और पुनः हिसाब करते हुए मैंने दुकानदार को चार सौ रुपये लौटा दिए. हमारे वार्तालाप को सुपर मार्केट के अन्य कर्मचारी भी सुन रहे थे और अन्य ग्राहको ने भी अपना ध्यान हमारे लेन देन पर दिया. मेरी इमानदारी से दुकानदार और अन्य दर्शक अत्यन्त गदगद हो उठे और उन्होंने मेरी इमानदारी की भरसक सराहना की. पता नही क्यों, मुझे एक अलग और अदभुत सी खुशी हो रही थी. एक छोटी घट्ना थी, आई और चली गई पर इस घट्ना के बाद मैंने जब भी उस सुपर मार्केट में पुनः प्रवेश किया तो समस्त कर्मचारीगण मेरी ओर एक विशेष आदर भाव से पेश आते हैं. इस छोटे से घटने से मुझे एहसास हुआ कि अगर मैंने उस दिन ग़लत राह को चुना होता तो कितना बडा नुक्सान हो जाता. और ऐसे भी आज के जीवनशैली में साढ़े चार सौ रुपयों का बहुत ज्यादा महत्व नही होता पर इस छोटे से रकम में मैंने जिंदगी का इतना बडा सबब लिया है कि आज भी उस रकम के कारण मुझे जो विशेष आदर मिलता है शायद मैं उसे कितने भी बड़े रकम में नही खरीद सकता. और वैसे भी वो साढे चार सौ रुपये कभी भी मेरे थे ही नही. उस दिन जिन लोगो ने मेरी इमानदारी देखी संभवतः उन्होंने भी अपने जीवन में ऐसे ही इमानदारी से पेश आने के लिए कुछ तो प्रेरणा ली होगी. इमानदारी का रास्ता कभी भी कठिन नही होता पर हमारे मन पर उससे होने वाले दूरगामी लाभो की भली भांति पह्चान नही होती. ऐसे अवसर हम सब के जीवन में आते हैं और आते रहेंगे पर जब जब हम इमानदारी का रास्ता अख्तियार करते हैं तो हमे ना केवल एक सुकुन मिलता है पर साथ साथ इसी समाज में एक विशेष आदर सत्कार भी मिलता है जिसे कभी भी पैसो से खरीदा नही जा सकता. हो सकता है कि वर्तमान या भविष्य में आप भी कभी ऐसे दोराहे में खड़े हो जहाँ आपको इमानदारी और बेइमानी के बीच एक को चुनना हो तो बेहिचक इमानदारी का मार्ग चुनियेगा, वो इसलिए कि ऐसा करने पर आपको इसका लाभ उम्र भर मिलेगा. जबकि बेइमानी के मार्ग में आपको तुरंत कुछ लाभ हो सकता है पर आप एक बहुत महत्वपुर्ण अवसर खो बैठेंगे. हम सभी को हमेशा ऐसे अवसरो की तलाश करनी चाहिए जब हम इस समाज में इमानदारी की कोई ऐसी मिसाल रख सके जिससे समाज का इमानदारी पर पुनः विश्वास जाग्रित हो सके. और इस समाज में अगर आज भी इमानदारी का चलन है तो इसके चलन को रोकने या इसके चलन को बढावा देने के मार्ग में आपका निर्णय एक बहुत बडा योगदान दे सकता है. अतः अगर भविष्य में आप कभी भी अपने आप को ऐसे दोराहे पर पाये जहाँ आपको नज़दीक का फायदा दिखे तो साथ साथ दूर के अवश्यम्भावि नुक्सानो की विवेचना भी किजियेगा क्योंकि यह समाज हमारा ख़ुद का है और हम इस समाज के एक जिम्मेदार नागरिक हैं और हम जैसा बोयेंगे वैसा ही काटेंगे. मेरे ख़ुद के अनुभव से मैंसे महसूस किया है कि मात्र साढ़े चार सौ रुपयों में मैंने जो आदर, सत्कार और गर्व प्राप्त किया है शायद मुझे बहुत ही सस्ते दामो में मिल गया जिसके लिए मैं अपने उस दिन के निर्णय पर उमर भर फक्र करता रहुंगा. 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